Friday 4 December 2015

How Indian map changed day by day

11 आक्रमण जिन्होंने बदल दिया अखंड भारत का नक्शा

फारसी तथा यूनानियों का आक्रमण : भारत की उत्तर-पश्‍चिमी सीमा पर स्‍थित भारतीय राज्यों को फारस और यूनानी से हमेशा आक्रमण का खतरा बना रहता था। पहले यहां कंबोज, कैकेय, गांधार नामक छोटे-बड़े राज्य थे। भारत की उत्तर-पश्‍चिम सीमा की बात करें तो संपूर्ण अफगानिस्तान और ईरान के समुद्रवर्ती कुछ हिस्से थे। यहां हिन्दूकुश नाम का एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसके उस पार कजाकिस्तान, रूस और चीन जाया जा सकता है। ईसा के 700 साल पूर्व तक यह स्थान आर्यों का था। ईसा पूर्व 700 साल पहले तक इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था जिसके बारे में भारतीय स्रोत महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है। महाभारत में कंबोज और गांधार के कई राजाओं का उल्लेख मिलता है। जिनमें कंबोज के सुदर्शन और चंद्रवर्मन मुख्य हैं।



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अफगानिस्तान पहले था हिन्दू राष्ट्र

घुसपैठ : उक्त सीमावर्ती राज्यों में व्यापार के माध्यम से कई फारसी और यूनानियों ने अपने अड्डे बना लिए थे, दूसरी ओर अरबों ने भी समुद्री तटवर्ती क्षेत्र में अपने व्यापारिक ठिकाने बनाकर अपने लोगों की संख्या बढ़ा ली थी। अफगानिस्तान में पहले आर्यों के कबीले आबाद थे और वे सभी वैदिक धर्म का पालन करते थे, फिर बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद यह स्थान बौद्धों का गढ़ बन गया। बामियान बौद्धों की राजधानी थी।

सिकंदर का आक्रमण : सिकंदर का जब आक्रमण (328 ईसा) हुआ, तब यहां फारस के हखामनी शाहों ने कब्जा कर रखा था। ईरान के पार्थियन तथा भारतीय शकों के बीच बंटने के बाद अफगानिस्तान के आज के भू-भाग पर बाद में सासानी शासन आया। इस तरह हखामनी ईरानी वंश के लोगों से सबसे पहले भारत पर आक्रमण किया। हालांकि यह आर्यों के ही वंशज थे।

सिकंदर और पोरस युद्ध (326 ईसा पूर्व) : भारत पर यूं तो छोटे-बड़े आक्रमण होते रहे लेकिन पहला बड़ा आक्रमण सिकंदर ने किया था। सिकंदर और पोरस के बीच हुए युद्ध में पोरस की जीत हुई थी। सिकंदर ने भारत के पश्‍चिमी छोर पर बसे पोरस के राज्य पर आक्रमण किया था। पोरस के राज्य के आसपास दो छोटे-छोटे राज्य थे- तक्षशिला और अम्भिसार। तक्षशिला, जहां का राजा अम्भी था और अम्भिसार का राज्य कश्मीर के चारों ओर फैला हुआ था। अम्भी का पुरु से पुराना बैर था इसलिए उसने सिकंदर से हाथ मिला लिया। अम्भिसार ने तटस्थ रहकर सिकंदर की राह आसान कर दी। दूसरी ओर धनानंद का राज्य था वह भी तटस्थ था। ऐसे में पोरस को अकेले ही लड़ना पड़ा।

इस युद्ध के बाद भारत का पश्‍चिमी छोर कमजोर होने लगा। यवन आक्रांताओं के आक्रमण बढ़ने लगे। बौद्ध धर्म के उदय के बाद तो यह पश्‍चिमी छोर और भी कमजोर होकर बौद्ध मठों का केंद्र बन गया। संपूर्ण अफगानिस्तान उक्त काल में भारत का पश्चिमी छोर था जहां उपगणस्थान, गांधार और केकय प्रदेश थे और ये सभी बौद्ध राष्ट्र बन चुके थे। यही हाल भारत के पूर्वी छोर पर हुआ, जहां तिब्बत (त्रिविष्टप), ब्रह्मदेश (बर्मा), श्यामदेश (थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया), जावा और सुमात्रा का था, लेकिन पश्‍चिमी छोर की अपेक्षा ये सभी क्षेत्र शांत थे। बौद्ध धर्म के उदय के बाद अखंड भारत के बहुत से हिस्से बौद्ध वर्चस्व वाले बनने लगे।


खलीफाओं का आक्रमण : 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किए और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया।


भारत में यूनानियों के आक्रमण के बाद जब बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ तो भारत में एक और जहां बौद्ध और हिन्दू राजाओं में वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी वहीं पश्चिमी छोर यूनानी और फारसियों के आक्रमण से परेशान था। पूर्वी छोर पर कई छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य स्थापित हो चुके थे। ऐसे में इस्लाम का उदय हुआ और उसने संपूर्ण दुनिया का नक्शा बदल दिया।

लगभग 632 ई. में 'हजरत मुहम्मद' की वफात (मृत्यु) के बाद 6 वर्षों के अंदर ही उनके उत्तराधिकारियों ने सीरिया, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका, स्पेन एवं ईरान को जीत लिया। इस समय खलीफा साम्राज्य फ्रांस के लायर नामक स्थान से लेकर आक्सस एवं काबुल नदी तक फैल गया था।

वफात के बाद 'खिलाफत' संस्था का गठन हुआ, जो इस बात का निर्णय करती थी कि इस्लाम का उत्तराधिकारी कौन है? मुहम्मद साहब के दोस्त अबू बकर को मुहम्मद का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। पहले 4 खलीफाओं ने मुहम्मद से अपने रिश्तों के कारण खिलाफत हासिल की। उनमें से उमय्यदों और अब्बासियों के काल में इस्लाम का विस्तार हुआ। अब्बासियों ने ईरान और अफगानिस्तान में अपनी सत्ता कायम की। ईरान के पारसियों को या तो इस्लाम ग्रहण करना पड़ा या फिर वे भागकर सिंध में आ गए।

मुहम्मद बिन कासिम : 7वीं सदी के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान भारत के हाथ से जाता रहा। भारत में इस्लामिक शासन का विस्तार 7वीं शताब्दी के अंत में मोहम्मद बिन कासिम के सिन्ध पर आक्रमण और बाद के मुस्लिम शासकों द्वारा हुआ। लगभग 712 में इराकी शासक अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिन्ध और बूच पर के अभियान का सफल नेतृत्व किया।

इस्लामिक खलीफाओं ने सिन्ध फतह के लिए कई अभियान चलाए। 10 हजार सैनिकों का एक दल ऊंट-घोड़ों के साथ सिन्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिन्ध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। 15वें आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम ने किया।

मुहम्मद बिन कासिम अत्यंत ही क्रूर योद्धा था। सिंध के दीवान गुन्दुमल की बेटी ने सर कटवाना स्वीकार किया, पर मीर कासिम की पत्नी बनना नहीं। इसी तरह वहां के राजा दाहिर (679 ईस्वी में राजा बने) और उनकी पत्नियों और पुत्रियों ने भी अपनी मातृभूमि और अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। सिंध देश के सभी राजाओं की कहानियां बहुत ही मार्मिक और दुखदायी हैं। आज सिंध देश पाकिस्तान का एक प्रांत बनकर रह गया है। राजा दाहिर अकेले ही अरब और ईरान के दरिंदों से लड़ते रहे। उनका साथ किसी ने नहीं दिया बल्कि कुछ लोगों ने उनके साथ गद्दारी की।



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महमूद गजनी (997-1030) : अरबों के बाद तुर्कों ने भारत पर आक्रमण किया। अलप्तगीन नामक एक तुर्क सरदार ने गजनी में तुर्क साम्राज्य की स्थापना की। 977 ई. में अलप्तगीन के दामाद सुबुक्तगीन ने गजनी पर शासन किया। सुबुक्तगीन ने मरने से पहले कई लड़ाइयां लड़ते हुए अपने राज्य की सीमाएं अफगानिस्तान, खुरासान, बल्ख एवं पश्चिमोत्तर भारत तक फैला ली थीं। सुबुक्तगीन की मुत्यु के बाद उसका पुत्र महमूद गजनवी गजनी की गद्दी पर बैठा। महमूद गजनवी ने बगदाद के खलीफा के आदेशानुसार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण करना शुरू किए। उसने भारत पर 1001 से 1026 ई. के बीच 17 बार आक्रमण किए।



महमूद गजनवी यमनी वंश का तुर्क सरदार गजनी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। महमूद ने सिंहासन पर बैठते ही हिन्दूशाहियों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। महमूद ने पहला आक्रमण हिन्दू शाही राजा 'जयपाल' के विरुद्ध 29 नवंबर सन् 1001 में किया। उन दोनों में भीषण युद्ध हुआ, परंतु महमूद की जोशीली और बड़ी सेना ने जयपाल को हरा दिया। फिर हिन्दू शाही राजधानी 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) में महमूद और आनंदपाल के बीच 1008-1009 ई. में भीषण युद्ध हुआ। इन लड़ाइयों में पंजाब पर अब गजनवियों का पूर्ण अधिकार हो गया। इसके बाद मुल्तान की बारी आई। वहां पर भी सं. 1071 में हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो गया।

इसके बाद के आक्रमणों में उसने मुल्तान, लाहौर, नगरकोट और थानेश्वर तक के विशाल भू-भाग में खूब मार-काट की तथा हिन्दुओं को जबर्दस्ती इस्लाम अपनाने पर मजबूर किया। फिर सं. 1074 में कन्नौज के विरुद्ध युद्ध हुआ था। उसी समय उसने मथुरा पर भी आक्रमण किया और उसे बुरी तरह लूटा और वहां के मंदिरों को तोड़ दिया। उस वक्त मथुरा के समीप महावन के शासक कुलचंद के साथ उसका युद्ध हुआ। कुलचंद ने उसके साथ भयंकर युद्ध किया।

गजनी के इस सुल्तान महमूद ने 17 बार भारत पर चढ़ाई की। मथुरा पर उसका 9वां आक्रमण था। उसका सबसे बड़ा आक्रमण 1026 ई. में काठियावाड़ के सोमनाथ मंदिर पर था। देश की पश्चिमी सीमा पर प्राचीन कुशस्थली और वर्तमान सौराष्ट्र (गुजरात) के काठियावाड़ में सागर तट पर सोमनाथ महादेव का प्राचीन मंदिर है। 


महमूद ने सोमनाथ मंदिर का शिवलिंग तोड़ डाला। मंदिर को ध्वस्त किया। हजारों पुजारी मौत के घाट उतार दिए गए और वह मंदिर का सोना और भारी खजाना लूटकर ले गया। अकेले सोमनाथ से उसे अब तक की सभी लूटों से अधिक धन मिला था। उसका अंतिम आक्रमण 1027 ई. में हुआ। उसने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया था और लाहौर का नाम बदलकर महमूदपुर कर दिया था। महमूद के इन आक्रमणों से भारत के राजवंश दुर्बल हो गए और बाद के वर्षों में मुस्लिम आक्रमणों के लिए यहां का द्वार खुल गया।



मुहम्मद गौरी का आक्रमण : मुहम्मद बिन कासिम के बाद महमूद गजनवी और उसके बाद मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण कर अंधाधुंध कत्लेआम और लूटपाट मचाई। इसका पूरा नाम शिहाबुद्दीन उर्फ मुईजुद्दीन मुहम्मद गौरी था। भारत में तुर्क साम्राज्य की स्थापना करने का श्रेय मुहम्मद गौरी को ही जाता है। गौरी गजनी और हेरात के मध्य स्थित छोटे से पहाड़ी प्रदेश गोर का शासक था।



मुहम्मद गौरी अफगान योद्धा था, जो गजनी साम्राज्य के अधीन गौर नामक राज्य का शासक था। मुहम्मद गौरी 1173 ई. में गौर का शासक बना। जिस समय मथुरा मंडल के उत्तर-पश्चिम में पृथ्वीराज और दक्षिण-पूर्व में जयचंद्र जैसे महान नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम-उत्तर के सीमांत पर शाहबुद्दीन मुहम्मद गौरी (1173 ई.-1206 ई.) नामक एक मुसलमान सरदार ने महमूद गजनवी के वंशजों से राज्याधिकार छीनकर एक नए इस्लामी राज्य की स्थापना की थी। 

गौरी ने भारत पर पहला आक्रमण 1175 ईस्वी में मुल्तान पर किया, दूसरा आक्रमण 1178 ईस्वी में गुजरात पर किया। इसके बाद 1179-86 ईस्वी के बीच उसने पंजाब पर फतह हासिल की। इसके बाद उसने 1179 ईस्वी में पेशावर तथा 1185 ईस्वी में स्यालकोट अपने कब्जे में ले लिया। 1191 ईस्वी में उसका युद्ध पृथ्वीराज चौहान से हुआ। इस युद्ध में मुहम्मद गौरी को बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इस युद्ध में गौरी को बंधक बना लिया गया, लेकिन पृथ्वीराज चौहान ने उसे छोड़ दिया। इसे तराइन का प्रथम युद्ध कहा जाता था।

इसके बाद मुहम्मद गौरी ने अधिक ताकत के साथ पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण कर दिया। तराइन का यह द्वितीय युद्ध 1192 ईस्वी में हुआ था। अबकी बार इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान हार गए और उनको बंधक बना लिया गया। ऐसा माना जाता है कि बाद में उन्हें गजनी ले जाकर मार दिया गया। इसके बाद गौरी ने कन्नौज के राजा जयचंद को हराया जिसे चंदावर का युद्ध कहा जाता है। माना जाता है कि दूसरे युद्ध में कन्नौज नरेश जयचंद की मदद से उसने पृथ्वीराज को हरा दिया था। बाद में उसने जयचंद को ही धोखा दिया। गौरी भारत में गुलाम वंश का शासन स्थापित करके पुन: अपने राज्य लौट गया।

गौरी तो वापस आ गया, पर अपने दासों (गुलामों) को वहां का शासक नियुक्त कर आया। कुतुबुद्दीन ऐबक उसके सबसे काबिल गुलामों में से एक था जिसने एक साम्राज्य की स्थापना की जिसकी नींव पर मुस्लिमों ने लगभग 900 सालों तक राज किया। दिल्ली सल्तनत तथा मुगल राजवंश उसी की आधारशिला के परिणाम थे।



तैमूर लंग का आक्रमण : तैमूर लंग भी चंगेज खान जैसा शासक बनना चाहता था। सन् 1369 ईस्वी में वह समरकंद का शासक बना। उसके बाद उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था।



क्रूरता के मामले में वह चंगेज खान की तरह ही था। कहते हैं ‍कि एक जगह उसने दो हजार जिंदा आदमियों की एक मीनार बनवाई और उन्हें ईंट और गारे में चुनवा दिया।

जब तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया, तब उत्तर भारत में तुगलक वंश का राज था। 1399 में तैमूर लंग द्वारा दिल्ली पर आक्रमण के साथ ही तुगलक साम्राज्य का अंत माना जाना चाहिए। तैमूर मंगोलों की फौज लेकर आया तो उसका कोई कड़ा मुकाबला नहीं हुआ और वह कत्लेआम करता हुआ मजे के साथ आगे बढ़ता गया।

तैमूर के आक्रमण के समय वक्त हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर जौहर की राजपूती रस्म अदा की थी यानी युद्ध में लड़ते-लड़ते मर जाने के लिए बाहर निकल पड़े थे। दिल्ली में वह 15 दिन रहा और उसने इस बड़े शहर को कसाईखाना बना दिया। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह समरकंद वापस लौट गया। तैमूर के जाने के बाद दिल्ली मुर्दों का शहर रह गया था।


बाबर का आक्रमण : बाबर के ही कारण आज हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अयोध्या विवाद अभी तक बना हुआ है। बाबर के चलते ही मुगल शासन और वंश की स्थापना हुई और भारत मुगलों के अधीन चला गया।


मुगल वंश का संस्थापक बाबर एक लुटेरा था। उसने उत्तर भारत में कई लूटों को अंजाम दिया। मध्य एशिया के समरकंद राज्य की एक बहुत छोटी-सी जागीर फरगना (वर्तमान खोकंद) में 1483 ई. में बाबर का जन्म हुआ था। उसका पिता उमर शेख मिर्जा, तैमूरशाह तथा माता कुनलुक निगार खानम मंगोलों की वंशज थी।

बाबर ने चगताई तुर्की भाषा में अपनी आत्मकथा 'तुजुक- ए-बाबरी' लिखी। इसे इतिहास में 'बाबरनामा' भी कहा जाता है। बाबर का टकराव दिल्ली के शासक इब्राहीम लोदी से हुआ। बाबर के जीवन का सबसे बड़ा टकराव मेवाड़ के राणा सांगा के साथ था। 'बाबरनामा' में इसका विस्तृत वर्णन है। संघर्ष में 1927 ई. में खन्वाह के युद्ध में अंत में उसे सफलता मिली।

बाबर ने अपने विजय पत्र में अपने को मूर्तियों की नींव का खंडन करने वाला बताया। इस भयंकर संघर्ष से बाबर ने गाजी की उपाधि प्राप्त की। गाजी वह, जो काफिरों का कत्ल करे। बाबर ने अमानुषिक ढंग से तथा क्रूरतापूर्वक हिन्दुओं का नरसंहार ही नहीं किया, बल्कि अनेक हिन्दू मंदिरों को भी नष्ट किया। बाबर की आज्ञा से मीर बाकी ने अयोध्या में राम जन्मभूमि पर निर्मित प्रसिद्ध मंदिर को नष्ट कर मस्जिद बनवाई, इसी भांति ग्वालियर के निकट उरवा में अनेक जैन मंदिरों को नष्ट किया। उसने चंदेरी के प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिरों को भी नष्ट करवा दिया था, जो आज बस खंडहर हैं।

अकबर के काल में हुआ अफगानिस्तान अलग : बाबर का बेटा नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूं दिल्ली के तख्त पर बैठा। हुमायूं के बाद जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर, अकबर के बाद नूरुद्दीन सलीम जहांगीर, जहांगीर के बाद शाहबउद्दीन मुहम्मद शाहजहां, शाहजहां के बाद मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब ने तख्त संभाला। भारत में मुगल शासकों में सबसे क्रूर औरंगजेब था। मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब का जन्म 1618 ईस्वी में हुआ था। 

26 मई 1739 को दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह अकबर ने ईरान के नादिर शाह से संधि कर उपगणस्थान (अफगानिस्तान) उसे सौंप दिया था। 1876 में अफगानिस्तान एक इस्लामिक राष्ट्र बना।

अंग्रेजों का आक्रमण : अंग्रेज सोची-समझी रणनीति के तहत पहले व्यापार करने भारत आए। अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने का अधिकार जहांगीर ने 1618 में दिया था। इसमें जहांगीर की भी रणनीति थी। जहांगीर और अंग्रेजों ने मिलकर 1618 से लेकर 1750 तक भारत के अधिकांश रजवाड़ों को छल से अपने कब्जे में ले लिया था। बंगाल उनसे उस समय तक अछूता था और उस समय बंगाल का नवाब था सिराजुद्दौला। हालांकि अंग्रेजों ने सत्ता छत्रियों, राजपूतों, सिखों आदि से छीनी थी, लेकिन प्लासी के युद्ध की ज्यादा चर्चा की जारी है। यह अधूरा सच है।



प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे 'प्लासी' नामक स्थान में हुआ था। इस युद्ध में एक ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना थी तो दूसरी ओर बंगाल के नवाब की सेना। कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया था। युद्ध को भारत के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है। इस युद्ध से ही भारत की दासता की कहानी शुरू होती है।

इस युद्ध की जानकारी लंदन के इंडिया हाउस लाइब्रेरी में उपलब्ध है। वहां भारत की गुलामी के समय के 20 हजार दस्तावेज उपलब्ध हैं। वहां उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार अंग्रेजों के पास प्लासी के युद्ध के समय मात्र 300 सिपाही थे और सिराजुद्दौला के पास 18,000 सिपाही। उस समय ब्रिटिश सेना (1757 में) नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ युद्ध लड़ रही थी। आश्चर्यजनक रूप से कंपनी ने सिराजुद्दौला की सेना को हरा दिया था। 

इसके बाद कंपनी ने ब्रिटिश सेना की मदद से धीरे-धीरे अपने पैर फैलाना शुरू कर दिया और लगभग संपूर्ण भारत पर कंपनी का झंडा लहरा दिया। उत्तर और दक्षिण भारत के सभी मुस्लिम शासकों सहित सिख, मराठा, राजपूत और अन्य शासकों के शासन का अंत हुआ।

भारत में ब्रिटेन का दो तरह से राज था- पहला कंपनी का राज और दूसरा 'ताज' का राज। 1857 से शुरू हुआ ताज का राज 1947 में खत्म हो गया। इससे पहले 100 वर्षों तक कंपनी का राज था।

इतिहासकार मानते हैं कि  200 वर्षों के ब्रिटिश काल के दौरान संभवत: 1904 में नेपाल को अलग देश की मान्यता दे दी गई। फिर सन् 1906 में भूटान को स्वतंत्र देश घोषित किया गया। तिब्बत को 1914 में भारत से अलग कर दिया गया। इसके बाद 1937 में बर्मा को अगले देश की मान्यता मिली। इसी तरह इंडोनेशिया, मलेशिया भी स्वतंत्र राष्ट्र बन गए। बाद में 1947 को भारत का एक और विभाजन किया गया। हालांकि इस पर कई इतिहासकारों में मतभेद हैं।


भारत-पाक युद्ध (1947) : 1947 में भारत का एक बार फिर विभाजन हुआ। माउंटबेटन, चर्चिल, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान ने मिलकर भारत को तोड़ दिया। विभाजन भी जिन्ना की शर्त पर हुआ। भारत से अलग हुए क्षेत्र को पश्‍चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) कहा जाता था। विभाजन के बाद पाकिस्तान की नजर थी कश्मीर पर। उसने कश्मीरियों को भड़काना शुरू किया और अंतत: कश्मीर पर हमला कर दिया। 



26 अक्टूबर को 1947 को जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह ने अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए विलय-पत्र पर दस्तखत किए थे। गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर को इसे मंजूरी दी। विलय-पत्र का खाका हू-ब-हू वही था जिसका भारत में शामिल हुए अन्य सैकड़ों रजवाड़ों ने अपनी-अपनी रियासत को भारत में शामिल करने के लिए उपयोग किया था। न इसमें कोई शर्त शुमार थी और न ही रियासत के लिए विशेष दर्जे जैसी कोई मांग। इस वैधानिक दस्तावेज पर दस्तखत होते ही समूचा जम्मू और कश्मीर, जिसमें पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाला इलाका भी शामिल है, भारत का अभिन्न अंग बन गया था। लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान ने कश्मीर में आग लगा दी।

1947 को विभा‍जित भारत आजाद हुआ। उस दौर में भारतीय रियासतों के विलय का कार्य चल रहा था, जबकि पाकिस्तान में कबाइलियों को एकजुट किया जा रहा था। इधर जूनागढ़, कश्मीर, हैदराबाद और त्रावणकोर की रियासतें विलय में देर लगा रही थीं तो कुछ स्वतंत्र राज्य चाहती थीं। इसके चलते इन राज्यों में अस्थिरता फैली थी।

जूनागढ़ और हैदराबाद की समस्या से कहीं अधिक जटिल कश्मीर का विलय करने की समस्या थी। कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक थे लेकिन पंडितों की तादाद भी कम नहीं थी। कश्मीर की सीमा पाकिस्तान से लगने के कारण समस्या जटिल थी अतः जिन्ना ने कश्मीर पर कब्जा करने की एक योजना पर तुरंत काम करना शुरू कर दिया। 

हालांकि भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो चुका था जिसमें क्षेत्रों का निर्धारण भी हो चुका था फिर भी जिन्ना ने परिस्थिति का लाभ उठाते हुए 22 अक्टूबर 1947 को कबाइली लुटेरों के भेष में पाकिस्तानी सेना को कश्मीर में भेज दिया। वर्तमान के पा‍क अधिकृत कश्मीर में खून की नदियां बहा दी गईं। इस खूनी खेल को देखकर कश्मीर के शासक राजा हरिसिंह भयभीत होकर जम्मू लौट आए। वहां उन्होंने भारत से सैनिक सहायता की मांग की, लेकिन सहायता पहुंचने में बहुत देर हो चुकी थी। नेहरू की जिन्ना से दोस्ती थी। वे यह नहीं सोच सकते थे कि जिन्ना ऐसा कुछ कर बैठेंगे, लेकिन जिन्ना ने ऐसा कर दिया।

भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाते हुए उनके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीरी क्षेत्र को पुनः प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ रही थी कि बीच में ही 31 दिसंबर 1947 को नेहरूजी ने यूएनओ से अपील की कि वह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी लुटेरों को भारत पर आक्रमण करने से रोके। फलस्वरूप 1 जनवरी 1949 को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्धविराम की घोषणा कराई गई। इससे पहले 1948 में पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में अपनी सेना को भारतीय कश्मीर में घुसाकर समूची घाटी कब्जाने का प्रयास किया, जो असफल रहा।

नेहरूजी के यूएनओ में चले जाने के कारण युद्धविराम हो गया और भारतीय सेना के हाथ बंध गए जिससे पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए गए शेष क्षेत्र को भारतीय सेना प्राप्त करने में फिर कभी सफल न हो सकी। आज कश्मीर में आधे क्षेत्र में नियंत्रण रेखा है तो कुछ क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा। अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगातार फायरिंग और घुसपैठ होती रहती है।

भारत-चीन युद्ध 1962 : चीन सेना द्वारा भारत के सीमा क्षेत्रों में आक्रमण। कुछ दिन तक युद्ध के बाद एकपक्षीय युद्धविराम की घोषणा। भारत को अपनी सीमा के 38000 वर्ग किलोमीटर को छोड़ना पड़ा।




चीन के दिवंगत कद्दावर नेता माओत्से तुंग ने ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ आंदोलन की असफलता के बाद सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी पर अपना फिर से नियंत्रण कायम करने के लिए भारत के साथ वर्ष 1962 का युद्ध छेड़ा था। दूसरी ओर एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि चीन के खिलाफ भारत की हार के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जिम्मेदार थे। 

उल्लेखनीय है कि भारत की लगभग 38000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर चीन का कब्जा है। हैंडरसन ब्रूक्स की एक रिपोर्ट के हवाले से पत्रकार नैविल मैक्सवेल ने दावा किया है कि 62 की इस लड़ाई में भारत को मिली हार के लिए सिर्फ और सिर्फ तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जिम्मेदार हैं। नैविल उस वक्त नई दिल्ली में टाइम्स ऑफ लंदन के लिए काम करते थे। 1962 की लड़ाई के बाद भारत सरकार ने लिए लेफ्टिनेंट जनरल हेंडरसल ब्रूक्स और ब्रिगेडियर पीएस भगत ने पूरे मामले की जांच की थी और इन्होंने उस वक्त भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को हार के लिए जिम्मेदार ठहराया था।

भारत-पाक युद्ध 1965 : पाकिस्तान ने अपने सैन्य बल से 1965 में कश्मीर पर कब्जा करने का प्रयास किया जिसके चलते उसे मुंह की खानी पड़ी। इस युद्ध में पाकिस्तान की हार हुई। हार से तिलमिलाए पाकिस्तान ने भारत के प्रति पूरे देश में नफरत फैलाने का कार्य किया और पाकिस्तान की समूची राजनीति ही कश्मीर पर आधारित हो गई यानी कि सत्ता चाहिए तो कश्मीर को कब्जाने की बात करो।




यह युद्ध हुआ तब तत्का‍लीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री थे और पाकिस्तान में राष्ट्रपति जनरल अय्यूब खान थे। भारतीय फौजों ने पश्चिमी पाकिस्तान पर लाहौर का लक्ष्य कर हमले किए। अय्यूब खान ने भारत के खिलाफ पूर्ण युद्ध की घोषणा कर दी। 3 हफ्तों तक चली भीषण लड़ाई के बाद दोनों देश संयुक्त राष्ट्र प्रायोजित युद्धविराम पर सहमत हो गए। भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और अय्यूब खान के बीच ताशकंद में बैठक हुई जिसमें एक घोषणापत्र पर दोनों ने दस्तखत किए। इसके तहत दोनों नेताओं ने सारे द्विपक्षीय मसले शांतिपूर्ण तरीके से हल करने का संकल्प लिया। दोनों नेता अपनी-अपनी सेना को अगस्त 1965 से पहले की सीमा पर वापस बुलाने पर सहमत हो गए। लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद समझौते के एक दिन बाद ही रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। 


भारत-पाकिस्तान युद्ध (1971) : 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ जिसमें पाकिस्तान की हार हुई और एक नए देश बांग्लादेश का निर्माण हुआ। पाकिस्तान ने तैयारी करके फिर से बचे हुए कश्मीर को कब्जाने का प्रयास किया।




तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका डटकर मुकाबला किया और अंतत: पाकिस्तान की सेना के 1 लाख सैनिकों ने भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और 'बांग्लादेश' नामक एक स्वतंत्र देश का जन्म हुआ। इंदिरा गांधी ने यहां एक बड़ी भूल की। यदि वे चाहतीं तो यहां कश्मीर की समस्या हमेशा-हमेशा के लिए सुलझ जाती, लेकिन वे जुल्फिकार अली भुट्टो के बहकावे में आ गईं और 1 लाख सैनिकों को छोड़ दिया गया।

इस युद्ध के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गई कि कश्मीर हथियाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई में भारत को हरा पाना मुश्किल ही होगा। 1971 में शर्मनाक हार के बाद काबुल स्थित पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी में सैनिकों को इस हार का बदला लेने की शपथ दिलाई गई और अगले युद्ध की तैयारी को अंजाम दिया जाने लगा लेकिन अफगानिस्तान में हालात बिगड़ने लगे।

1971 से 1988 तक पाकिस्तान की सेना और कट्टरपंथी अफगानिस्तान में उलझे रहे। यहां पाकिस्तान की सेना ने खुद को गुरिल्ला युद्ध में मजबूत बनाया और युद्ध के विकल्पों के रूप में नए-नए तरीके सीखे। यही तरीके अब भारत पर आजमाए जाने लगे।

पहले उसने भारतीय पंजाब में आतंकवाद शुरू करने के लिए पाकिस्तानी पंजाब में सिखों को 'खालिस्तान' का सपना दिखाया और हथियारबद्ध सिखों का एक संगठन खड़ा करने में मदद की। पाकिस्तान के इस खेल में भारत सरकार उलझती गई और आज तक उलझी हुई है।


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